रायपुर । छत्तीसगढ़ में बढ़ते हुए नक्सली घटना की भर्त्सना करते हुए देश भर के लेखकों ने मदनवाड़ा के नक्सली एंबुश में मारे गये शहीदों के प्रति श्रद्धांजलि दी है । प्रख्यात कवि और आलोचक अशोक बाजपेयी ने कहा है कि इस समय नक्सलियों द्वारा कई राज्यों में लगातार जो हिंसा हो रही है उसके बारे में तमाम क्रांति धर्मी लेखक चुप्पी क्यों साधे हुए हैं यह समझ में आना कठिन है । वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति की परंपरा में ही यह चुप्पी है । 20वीं शताब्दी में हम देख आये हैं कि हिंसा और हत्या से सच्ची क्रांती नहीं होती और अगर उसके होने का कुछ देर के लिए भ्रम हो भी जाये तो उसकी परिणति भी देर सवेर हिंसा और हत्या में हीं होती है । प्रख्यात कवि चंदकांत देवताले, उज्जैन हिंसा के सभी आयामों पर प्रतिबंध लगाने की अपील करते हुए कहा है कि मौत से प्राप्त की जानेवाले सत्ता का अंत अततः मौत में होती है, वहाँ विकास मायने नहीं रखता । नक्सलवाद की जड़ों में जाकर ही इसका हल निकाला जा सकता है । केवल हिंसक वारदातों से नहीं । कोच्चि, केरल के प्रख्यात लेखक ए। अरविंदाक्षन ने मदनवाड़ा की घटना को विकास विरोधी लोगों और संगठित अपराधियों की करतूत निरूपित करते हुए कहा कि सत्ता के लिए जब भी कोई वाद या दल हिंसा का सहारा लेने लगता है वह उसी समय से लक्ष्यच्यूत हो जाता है । लोगों का विश्वास उससे किंचित भी नहीं रह जाता है । आदिवासियों के विकास के बहाने से हिंसा को कभी भी और किसी भी दृष्टि से तवज्जो नहीं दी जानी चाहिए । जयपुर के गांधीवादी लेखक नंदकिशोर आचार्य ने नक्सलियों के करतूत को अहिंसा के ख़िलाफ़ और लक्ष्य से भटके हुए ऐसा हितैषी निरूपित किया है जिसे अपने लक्ष्य के अलावा अन्य सभी गतिविधियों पर ही रूचि रह गई है । मध्यप्रदेश साहित्य परिषद के प्रमुख और साक्षात्कार के संपादक डॉ। देवेन्द्र दीपक ने नक्सवाद को प्रजा विरोधी अवधारणा बताते हुए विश्व आंतकवाद का एक पहलू बताया है । उन्होंने कहा है कि ऐसे हिंसक तत्वों को अस्त्र शस्त्र पहुंचाने में जिनका हाथ है उनकी भी ख़बर ली जानी चाहिए । ऐसी समस्यायें केवल राज्य, व्यवस्था के लिए ही नहीं समूची मानव जाति के लिए भी अहितकर हैं । विडम्बना कि ऐसे विचारों के प्रति भी कुछ विघ्नसंतोषी मीडियाबाज सहानुभूति रख रहे हैं, अब समय आ गया है कि ऐसे तत्वों की पहचान भी राज्य सरकारें करें । धर्मयुग के पूर्व उप संपादक मनमोहन सरल, मुंबई ने कहा है कि छत्तीसगढ़ और साथ ही लालगढ़ की नक्सली हिंसा इस स्वरूप की भर्त्सना करते हुए मैं यह सोचता हूँ कि हमें इस समय की गहराई तक जाना चाहिए । असंतोष के कारणों की मीमांसा करनी चाहिए । केवल दमन से ही समस्या का फौरी हल भले ही हो जाये पर बिना इसके मूल तक जाये इसका स्थायी समाधान नहीं हो सकता । प्रयास इसी दिशा में करने होंगे । चर्चित आलोचक द्वय श्री भगवान सिंह, भागलपुर और बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राध्यापक कृष्ण मोहन ने नक्सलियों द्वारा मदनवाड़ा में किये हिंसा को मनुष्य समाज के खिलाफ़ एक जघन्य षडयंत्र निरूपित करते हुए उन पर तत्काल कड़ाई से राज्य और केंद्र सरकार को निपटने का आग्रह किया है । ऐसी घटनाओं को हर विचार, हर कोण, हर दृष्टि से निंदनीय ही माना जाना चाहिए । यदि ऐसी घटनाओं को किन्ही उथले विचार के सहारे समर्थन मिलता है तो वह देश, समाज और समय के खिलाफ ही जायेगा । प्रख्यात आलोचक और कवि प्रभात त्रिपाठी, रायगढ़ ने अपने विचार रखते हुए कहा है कि प्रजातंत्र का विकल्प कोई भी हिंसक तंत्र नहीं हो सकता अतः नक्सलवाद मूलतः अपने लक्ष्य के साधनों की विश्वसनीयता खो चुका है । ऐसी घटनाओं को अराजक आक्रोश और मानवविरोधी माना जाकर उनका पूर्ण मनोयोग से जनता को जबाव देना ही होगा । शिरीष कुमार मौर्य, कवि, नैनीताल ने लिखा है कि मैं ऐसी किसी भी घटना का पुरजोर विरोध करता हूँ। विचार कहीं पीछे छूट रहा है और उसके नाम पर इस तरह का जो कुछ भी घट रहा है वह खेदजनक है। मृतकों को मेरी श्रद्धांजलि । प्रख्यात लेखक डॉ। हरि जोशी, इंदौर ने कहा है कि मदनवाड़ा की घटना को मुंबई में हुए आतंकी हमला से कम नहीं समझा जाना चाहिए । राजनांदगाँव के अपराधियों को कठोरता से जल्द से जल्द दंडित किया जाना चाहिए। रायगढ़ के कवि और आलोचक डॉ. बलदेव ने कहा है कि यह मात्र राज्य सरकार की समस्या नहीं । यह केवल पुलिस की ड्यूटी नहीं कि वह आपके छत्तीसगढ़ को नक्सली विपदाओं से मुक्त बनाये रखे । यह वक्त निर्णय लेने की घड़ी है कि आप किसका वरण करना चाहते है ? माओवादी हिंसक तंत्र का या प्रजातंत्र का । अब पानी सिर से उतर चुका है । हर बच्चा बोले, हर युवक बोले, माँएं बोले, रिक्शावाला बोले, किसान बोले, मज़दूर बोले, अधिकार बोले। बोलें कि बस्स बहुत हो चुका, सिर्फ़ पुलिस ही नहीं लड़ेगी हम लडेंगे भी और नक्सलवादियों के ख़िलाफ़ बोलेंगे भी सुशील कुमार, साहित्यकार, दुमका, झारखंड का मानना है कि नक्सली अब आंतकी का रूप ले रहे हैं। ये समाज और राष्ट्र के उसी तरह दुश्मन भी बन गये हैं। इनकी न सिर्फ़ भर्त्सना, बल्कि खात्मा के लिये सरकार और जनता, दोनों को आगे आना होगा। नक्सली अब उसी ऐशोआराम में जी रहे हैं जिस प्रकार शोषक वर्ग रहा करते हैं/थे। इनके भी बच्चे अब बड़े स्कूलों में पढ़ते हैं। इनका भी काफ़ी बैंक-बैलेन्स होता है। अत: नक्सलवाद अब जनांदोलन नहीं, पेट पालने का धंधा भी है।अब हमें ये उल्लू नहीं बना सकते। आचार्य संजीव सलील, संपादक, नर्मदा, जबलपुर का विचार है कि नक्सलवाद वैचारिक रूप से पथ से भटके हिंसावादी हैं, जो किसी नीति-न्याय में विश्वास नहीं करते। शासन और प्रशासन को योजना बनाकर इन्हें समूल नष्ट कर देना चाहिए। ये न तो उत्पीडित हैं, न किन्ही सामाजिक अंतर्विरोधों का प्रतिफल। कुछ बुद्धिजीवी अपनी सहानुभूति देकर इन्हें पनपाते हैं ।
ये पौराणिक राक्षसों के आधुनिक रूप हैं जो अन्यों के मानवाधिकारों की रोज हत्या करते हैं और जब मरने लगते हैं तो खुद के मानवाधिकार की दुहाई देते हैं। आपनी साथी महिलाओं से बलात्कार करने में इन्हें संकोच नहीं होता। हिंसा पंथी कहीं भी, किसी भी रूप में हों, समूल नष्ट किये जाएँ। इनकी हर गोले का उत्तर सिर्फ और सिर्फ गोली से दिया जाना ज़ुरूरी है। सामान्य न्याय व्यवस्था नियम-कानून का सम्मान करनेवाले भद्रजनों के लिए है। आतंकवादियों को सामान्य कानून का लाभ नहीं देकर तत्काल ही गोले से मार दिया जाना चाहिए । देश के प्रख्यात गीतकार स्व। पं. नरेन्द्र शर्मा की बेटी लावण्या शाह, अमेरिका ने कहा है कि जब आदीवासी प्रजा पर अत्याचार होते हैँ तब वहाँ की दूसरी कौम चुप रहती है ? बस्तर के आदिवासियोँ की कोई मदद नहीँ करता ? ऐसा क्यूँ ? हिन्दी के चर्चित ब्लॉग लेखक जीत भार्गव ने माना है कि वामपंथियों ने हिन्दी, और हिन्दुस्तान का कबाडा किया है। वास्तविकता यह है कि भारत की अधोगति में इन प्रगतिशीलों को सुकून मिलता है। जनता के नरसंहार को यह जनवादी सही ठहराते हैं । युवा कवि राजीव रंजन प्रसाद ने लिखा है कि बस्तर और आदिवासी की समझ नहीं रखने वाले अपनी लफ्फाजियों से ही बाज आ जायें तो बडा परिवर्तन हो जायेगा। माओवादियों के समर्थक साहित्यकारों का बहिष्कार आवश्यक है। स्वीड़न निवासी रेडियो संचालक और कवि चांद शुक्ला ने माओवादी हिंसा की कटू आलोचना करते हुए इसे प्रजातंत्र के लिए ख़तरा बताया है । उन्होंने कहा है कि नक्सलवाद की समस्या मात्र छत्तीसगढ़ की समस्या नहीं अपितु समूचे भारत की समस्या है, जिससे निपटने के लिए सारे देशवासी को आगे आना पड़ेगा । कार्टूनिस्ट अजय सक्सेना, अजय श्रीवास्तव ने कहा है कि हिंसा पर उतारू नक्सलियों को सबक सिखाने का अंतिम समय आ चुका है, उनसे अब किसी प्रकार की बातचीत की संभावना क्षीण हो चुकी है ।
मदनवाड़ा नक्सली हिंसा की निंदा करने वालों में अन्य प्रमुख लेखक हैं – शिवकुमार मिश्र, खगेन्द्र ठाकुर, प्रभाकर श्रोत्रिय, गंगाप्रसाद बरसैंया, रमेश दवे, अशोक माहेश्वरी, ओम भारती, एकांत श्रीवास्तव, मुक्ता, रंजना अरगड़े, अरूण शीतांश, डॉ. बृजबाला सिंह, नंदकिशोर तिवारी, राजेन्द्र परदेसी, डॉ. नैना डेलीवाला, राजुरकर राज, नवल जायसवाल, सुशील त्रिवेदी, आनंद कृष्ण, संतोष रंजन, राम पटवा, जयप्रकाश मानस ।